छत की मुंडेर पर बैठा
निहार रहा था
सुबह का नीला आसमान
मन था उद्विग्न
चित था अशांत
....थी ढेरों परेशानियाँ
घेरे हुए थे लाखो प्रश्न
क्या करूँ, क्या न करूँ
कब करूँ, क्यूं करूँ
करूँ तो कैसे
ये, वो, जो, तो.............????
दिल में हुक सी उठी
निकली हलकी सी आवाज
कब तक
कब तक करूँ संघर्ष
कब तक गुजरूँ
इस संघर्ष की राह पर..
कब पहुचेंगे वहां
जहाँ तक है चाह......
कब इस विशाल
आकाश के
एक अंश
एक कतरे
......पर होगा
अपना हक़
कब होगा अपना
एक टुकड़ा आसमान
खुद का आसमान..
खुद का वजूद....................
तभी दिखा
एक उड़ता
फडफडाता हुआ
कबूतर.....
जो पास से उड़ कर
पहुँच गया बहुत दूर..
लगा जैसे
जहाँ चाह वहां राह...
जैसे सारा
जहाँ हो उसकी ...
बिना किसी सीमा के
अचानक
सुबह की तीखी होती धूप ने
लगाया सोच पर विराम
फिर शुरू होगया
रोज़ का खेला
वही पुराना झमेला
उतर आया में मुंडेर से
... झटक आया अपनी सोच
और ले आया साथ.
....कबूतर के ओट से
उमीदों भरा एक टुकड़ा आसमान!!
क्योंकि कबूतर के फडफाड़ते पंखो पर
उम्मीदों कि ऊँची उड़ान
मुझे दे गया अपने हिस्से का
एक टुकड़ा आसमान
आज खबाबों में..
शायद कल
होगा इरादों में......
और फिर
वजूद होगा मेरा....
मेरे हिस्से का आसमान..