याद है गाँव के घर का
वो अंगना
कुछ साल ही तो गुजरे होंगे
यादों के झरोखे में
सब चकमक करने लगता है
चढ़ती उतरती निक्कर
धुल-धक्कर पसीने से भींगा बदन
दूध-भात का कटोरा
मैया का डाँट भरा प्यार
और, और भी तो है
यादों के बल्व में दिखता है
छोटी छोटी फुदकती गोरैया
च्वीं च्वीं च्वीं .......
मैया ने जैसे ही
आँगन में फैलाया गेहूं
छोटे छोटे सोन-चिडाई
पहुँच आते थे फुदकते हुए..
फिर वही
च्वीं च्वीं च्वीं .....
आज भी यादों के जेहन
में दिखता है वो प्यारा
खुद का चेहरा
चढ़ते उतरते निक्कर के साथ
कैसे रहता था एक दम शांत
ताकि वो छोटी प्यारी फुद्कियाँ
न उड़ जाएँ
बेशक होते रहे बरबाद
फैलाये हुए चावल या गेहूं
वो सुकून वो च्वीं च्वीं ...........
फिर दिन बदला, बदला असमान
हरियाली, खेत, कीचड
कुछ भी तो नहीं दिखते
कहाँ फंस के रह गए
इस मानव जंगल में
एक दम निरीह अकेले....
नहीं दिखती अब वो
छोटी छोटी गोरैया
तो कहाँ दिखेगी उनकी झुण्ड...!
अब तो वो काला कौवा
भी नहीं उड़ता आस्मां में
जिस से दूर भागते थे हम..
.
अब तो ये आसमां और धरती
सब ऐसे बदल रही
जो भी थे बचपन के हमारे अपने
सब हो रहे विलुप्त
चाहे हो कौवा या
हो गोरैया
या हो प्यारी मैया
सब बदल गया न.....!!!